कहानी: खोयी हुई आशा


शाम का धुंधलका पसरने लगा था। मैं घर से निकलकर सामने वाली सड़क पर उतरा ही था कि पट्टू में दुबके एक व्यक्ति के साथ जसराज मेरी ओर ही आता दिखा। मुझे देखते ही वह यक-ब-यक बोल उठा।
'शर्मा जी, हम तो आपकी ही तरफ आ रहे थे।’
‘हां-हां, आओ अंदर चलते हैं.....। कहो कैसे आना हुआ ?’ मैंने पूछा।
‘अभी अंदर जाने का टाइम नहीं है। जल्दी में हैं। आपसे एक काम था।’
जसराज ने व्यग्रता दिखायी। मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने आगे जोड़ा---
‘इस साले बजरंगी की जोरू भाग गयी है।’
उसका इशारा साथ आए व्यक्ति की ओर था जो शो-रूम के किसी निष्प्राण मॉडल की तरह हाथ बांधे खड़ा था। जसराज का अगला वाक्य कुछ अनुनय भरा था, ‘अखबार में खबर निकलवाने में तनिक इसकी मदद कर दीजिए।’
पट्टू में लिपटे आदमी की आंखें मुझ पर टिकी हुई थीं। मैंने गौर से उसे देखा,  हुलिया बता रहा था कि वह किसी सरकारी महकमे का फोर्थ क्लास है। मैंने उसकी ओर कुछ शंका भरे प्रश्न उछाल दिये, ‘जोरू सचमुच भाग गयी या मारपीट करके भगा दी...पुलिस थाने गये थे क्या?... कब भागी?’
‘आज चौथा रोज है।’
‘इतने दिन क्या करते रहे ?’ मैंने तल्खी से पूछा।
उसकी जुबान से कोई शब्द बाहर नहीं आया। उसकी चुप्पी को दरकिनार कर मैंने उसे बताया, ‘रिपोर्ट लिखवानी पड़ती है थाने में ... एफ.आई. आर...... दर्ज करायी है क्या?’
उसके चेहरे पर किसी तरह का भाव नहीं था। न कोई आग्रह, न कोई परेशानी। शब्दों को टटोलते हुए उसने इतना भर कहा, ‘गये तो थे थाने। पुलिसवालों ने कहा के कम्पलेन नोट कर लिये हैं। अखबार में खबर दे आओ जाके।’
मैंने उसे स्पष्ट किया कि ऐसे खबर छपवाने में अड़चन आ सकती है। बिना किसी ठोस प्रमाण के अखबार वाले ना-नुकर भी कर सकते हैं। एफ.आई.आर. की कापी होगी तो काम आसान हो जाएगा।’
मेरी बात सुनकर जसराज ने उसे लताड़ा, ‘अबे थाने में और किस लिये गया था। कम्पलेट दर्ज हो गयी, इसका कोई प्रूफ है तेरे पास ? बूड़बक कहीं का। जो भी काम करता है, तसल्ली से नहीं करता है।’
बजरंगी नाम के उस व्यक्ति में जैसे बिजली का करंट आ गया हो, ‘..अभी जाते हैं हम थाने । जा के वहां बोलते हैं कि अखबार वालों ने अफाई आर की कापी मांगी है। मना कर दिया खबर छापने से।’
‘हां , जल्दी जा के ला, तभी मिलेगी लुगाई।’ जसराज ने उसे छेड़ा। पट्टू में अपने आप को अच्छी तरह लपेटता हुआ बजरंगी वहां से  चला और थोड़ी देर में स्ट्रीट-लाइट की दूधिया प्रकाश  में नहाये मकानों की कतार की ओट में हो गया।
मैं और जसराज सड़क के उस खामोश हाशिए  पर तब तक खड़े रहे। वह मेरे दफ्तर में ही ड्राइवर है यानी कि वाहन चालक। ड्राइवर सरकारी हो तो क्या कहने। सरकारी कामकाज की तरह उनकी जुबान भी लापरवाह भाषा  बोलने लगती है। उसने बजरंगी की संक्षिप्त कथा यों सुनायी।
‘बिल्कुल पगलेट है कमबख्त। जैसा यह, वैसी इसकी घरवाली। आपने तो देखा ही है। वही गूंगी। पता नहीं कहां भाग गयी साली तीन दिन से। मुझे दुःख तो ज्यादा उस बच्ची का हो रहा है जिसे वह अपने साथ ले गयी है।’
मेरे मस्तिष्क  में उस औरत  की धूमिल-सी छवि कौंधी। जसराज के घर के साथ ही मैंने उसे एक-दो बार देखा था। मानसिक रूप से अविकसित वह बालकटी औरत हरदम मुदित अवस्था में रहती है, जैसे कोई विदेशी गुलाब हो। जसराज कह रहा था, ‘बजरंगी की तीन संतानों में से एक छह वर्षीय  लड़की बीमार थी। ठंड लग गयी थी उसे। पसली चलने लगी तो सरकारी अस्पताल ले गया। तीन दिन तक वहीं रहा। इस बीच पगली आशा  दो साल की बेटी को उठाये न जाने कहां बिला गयी। जब बजरंगिया तीन दिनों  के बाद घर लौटा तो उसे खबरसार मिली। ....हमसे पूछ रहा था। हुंह... जैसे हम कोई उसके चौकीदार लगे हैं।  इधर-उधर सब जगह ढूंढ आया पर वह कहीं नहीं मिली। तभी इनसानी फर्ज के नाते मैंने सलाह दी थी कि थाने में रिपोर्ट लिखा आए।’
दूसरे दिन जसराज सरकारी गाड़ी में बजरंगी को बिठाये मेरे घर आ टपका। कल का ही समय था पर आज ठंड कुछ अधिक थी। एफ आई आर की मूल प्रति के साथ बजरंगी कुछ फोटो-प्रतियां भी लेता आया था और अपनी पत्नी की रंगीन तस्वीरें भी। इत्तफाक से फोटो में औरत के साथ वह बच्ची भी थी जो उसके साथ गुम हुई थी।
‘हां, अब काम बन सकता है।’ कहता हुआ मैं उनके साथ चल पड़ा। रात बढ़ती जा रही थी और ठंड भी। जसराज ने बजरंगी को कुहनी मारी, ‘अखबार में खबर इतनी आसानी से नहीं छपती है, समझा। काम बन जाये तो साहब की सेवा कर देना। बोतल लायक पैसे हैं न जेब में ? ठंड भी काफी है।’
असल में जसराज अपनी जुगाड़ में था पर ऐसे वक्त में मैंने उसकी आशा  पर पानी फेर दिया।
‘उसकी कोई जरूरत नहीं। खबर सही हो तो आसानी से छप जाती है।’
एक मानवीय कर्तव्य समझ सहायता की दृष्टि से मैं बजरंगी की लापता पत्नी और बच्ची की खबर छपवाने की कोशिश  करता रहा और हम तीनों अखबार के एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर दौड़ते रहे। इसमें हमें सफलता भी मिली। दूसरे दिन कुछ अखबारों में गूंगी आशा  अपनी बेटी को बांह में झुलाए खुद भी एक ओर झुकी हुई थी। एक अखबार ने कुछ अधिक अहमियत और दरियादिली दिखाते हुए मेरे घर का फोन नंबर भी लिख डाला था ताकि कहीं से कोई खबर मिले तो सूचना तत्काल मुझ तक पहुंच जाये।
उस दिन सुबह घर से निकलते हुए मैंने अपनी पत्नी को भी हिदायत दे दी कि कहीं से आशा  से सम्बंधित कोई फोन आये तो मुझे भी उसी वक्त दफ्तर में इत्तला कर दे ताकि जसराज के जरिये सूचना यथाशीघ्र बजरंगी तक पहुंच जाये और उस बेचारे की खोई हुई  बीवी और बच्ची उसे मिल जाये।
पर दिन भर में सिर्फ दो ही फोन आये। एक आशा की बहन का जो इसी शहर में थी। उसे समाचार-पत्र के माध्यम से ज्ञात हुआ कि उसकी मंदबुद्धि बहन कहीं लापता हो गयी है। दूसरा फोन किसी भलेमानस का था जिसने आशा  को सामान्य अस्पताल में कल सुबह तक देखा था जब अपने बेटे के इलाज के सिलसिले में वह वहां गया हुआ था। उस फोन के बारे में मैंने जसराज को तुरंत बता दिया पर उसने यह खबर सरकारी तार की तरह शाम को बजरंगी तक पहुंचायी।
      शाम को बजरंगी तीन-चार लोगों के साथ मेरे घर आ पहुंचा। टेलीफोन की सारी जानकारी उन्होंने पुनः मुकम्मल  तौर पर ली और फिर वे सामान्य अस्पताल की ओर रवाना हो गए। उनके जाने के बाद मेरे मन में एक अजीब-सी उथल-पुथल होने लगी। कहां चली गयी होगी वह गूंगी आशा । अखबार में उसकी तस्वीर और खबर छपने के बाद तो उसे मिल जाना चाहिये था। इतने बड़े शहर में क्या उसे एक आदमी ने ही देखा या फिर सबके सब संवेदनाशून्य हो गये हैं--अपने आसपास बिना देखे, अपने में खोये एक अज्ञात दिशा  की ओर लगातार भागते। किसी को किसी से मतलब नहीं। बेटी को छाती से चिपकाए गूंगी आशा  इसी शहर की भीड़ में कहीं खो गयी है। फुर्सत नही है किसी के पास, उसे उसके घर तक वापस पहुंचाने की।  मैंने भी अपना स्कूटर लिया और सामान्य अस्पताल जा पहुंचा। इसी बीच जसराज भी वहां आ चुका था। सभी अस्पताल में इधर-उधर छितर गये। मैं भी वहां कार्यरत एक जानकार चौकीदार को साथ में लेकर लोगों से पूछताछ करने लगा। अखबार की एक प्रति मेरे पास थी जिसमें छपी तस्वीर मैं लोगों को दिखाता रहा और आशा  के बारे में पूछता रहा, क्या किसी ने उसे यहां देखा है? चौकीदार ने मुझे अस्पताल की चौकी में बैठे पुलिस वाले से भी मिलाया। वह एक कुर्सी पर आराम से बैठा किसी व्यक्ति से गप्पें हांक रहा था। उसने ऐसी लापरवाही दिखाई जैसे और कुछ सुनने के मूड में न हो। उपेक्षा से सिर्फ यही कहा कि ऐसी किसी औरत की खबर उसके पास नहीं है। पुलिस चौकी के साथ बने अस्पताल की कैंटीन से भी कोई खबर नहीं मिली पर वहां अपने मरीजों के साथ आये कुछ लोगों से ज्ञात हुआ कि उन्होंने एक-दो दिन पहले ऐसी एक गूंगी औरत को देखा था, जो बच्ची को गोद में उठाए इधर-उधर भटक रही थी। उनमें से एक ने बताया कि वह इशारे से कुछ बताने की कोशिश  कर रही थी पर उसका मंतव्य समझ में नहीं आ रहा था। बेचारी को खाने के लिए भी किसी ने कुछ दिया होगा या नहीं?’ मैंने मन-ही-मन सोचा।
अस्पताल का कोना-कोना छानकर सभी तितर-बितर लोग पुनः एक स्थान पर इकट्ठे हो गये थे पर आशा  के बारे  में कोई महत्वपूर्ण सूचना किसी के भी हाथ नहीं लगी।
‘किसी आटो या रिक्षा वाले ने कहीं इधर-उधर न कर दिया हो उसे।’ बजरंगी के एक साथी ने अस्पताल के मुख्यद्वार पर खड़े आटो-रिक्शा  वालों की तरफ उचटती निगाह डालते हुए कहा।
मैंने परिस्थिति को संभालते हुए उन्हें आश्वस्त  किया, ‘कहीं नहीं जाती, मिल जायेगी वह।’
‘खाने की तलाश  में शहर में ही इधर-उधर कहीं भटक रही होगी। बच्ची भी तो साथ में है। भूख आदमी को कहां से कहां नहीं पहुंचा देती है।’
‘पर शर्मा जी, अखबार में फोटो देखकर और खबर पढ़कर कोई-न-कोई तो आपके घर में बताता?’ हमारे खोजी दस्ते में शामिल एक अन्य व्यक्ति ने कहा।
‘हो सकता है किसी बस में बैठकर शहर से बाहर चली गयी हो।’ जसराज ने प्रत्युत्तर में आशंका  व्यक्त की।
‘कहीं गलत हाथ में न पड़ जाये बेचारी।’
‘कम्बख्त बोल भी तो नहीं सकती। जैसे-तैसे घर तो लौट आती। दिमाग कमजोर है  तो क्या, घर संभाले हुए थी।’ बजरंगी की आवाज जैसे अंधकार को छेदकर बाहर आ रही थी।
अन्त में अस्पताल के कुछ कर्मचारियों को संपर्क-सूत्र थमाकर हम वहां से घर लौटने को उद्यत हुए पर बजरंगी का दिल नहीं माना। उसने कहा कि वह अस्पताल के आसपास के बाजारों-दुकानों में एक चक्कर लगाकर ही आयेगा।
हम घर लौट आए। घटनाक्रम से मेरी बेचैनी पहले से अधिक बढ़ गयी। रात के भोजन के बाद भी आंखों में नींद के दूर होने का अंदेशा  हुआ तो टहलता-टहलता जसराज के घर तक जा पहुंचा। बजरंगी उसके बगल वाले मकान में रहता है। उत्सुक था जानने के लिये कि हमारे लौटने के बाद बजरंगी कहां-कहां गया और आशा  से सम्बंधित कोई सूचना मिली या नहीं?
अच्छी-खासी ठंड के बावजूद जसराज के मुहल्ले में हलचल थी। जसराज और उसकी पत्नी घर के बाहर ही खड़े दिखे। बजरंगी के दरवाजे पर तीन औरतें खड़ी थीं, जिनसे वे उलझे हुए से जान पड़े। मुझे उनमें से एक औरत का रोष-भरा स्वर सुनायी दिया, ‘तुम क्यों नहीं संभाल लेते छोकरी को। तुम्हारे भी तो पड़ोसी हैं ये।’
मालूम हुआ कि अस्पताल से इलाज कराकर लायी गयी बजरंगी की उस छह साला बेटी की हालत फिर से बिगड़ गयी है और बजरंगी अभी तक घर नहीं लौटा था। जसराज वहां खड़ा -खड़ा फुफकार रहा था। बच्चे संभलते नहीं, साले पैदा कर लेते हैं। लुगाई के पीछे भागा फिर रहा है और इधर बीमार लड़की बिना कंबल-रजाई के बिस्तर पर पड़ी है। मर जायेगी वो।’
तीनों औरतें पल्लू में मुंह छिपाये बारी-बारी से बजरंगी के घर के अंदर ताक-झांक कर रही थीं पर उनमें से अंदर जाने का साहस कोई भी नहीं कर रही थी। जसराज बड़बड़ाए जा रहा था, ‘अंदर तो गंदगी भरी पड़ी है। जाना भी तो मुहाल है। वह पगली कौन-सा सफाई रखती थी। बच्चों के पेशाब सने बोरिया-बिस्तर तो हमारे घर की ओर टांग देती थी कमजात। मक्खियों से भर दिया हमारा भी घर। कैसे गंदे पड़ोसी मिले हैं? न आयी वह पगली तो सुख से रहेंगे हम।’ जसराज ने दोनों हथेलियां किसी अनाम देवता के लिये जोड़ दिये।
मोहल्ले के लोगों खासकर बच्चों और महिलाओं के लिये आशा  का अचानक कहीं चला जाना कौतुक का विषय  बन चुका था। सभी अपने-अपने घरों के बाहर खड़े आपस में बतिया रहे थे। कोई-न-कोई बच्चा बीच-बीच में हमसे पूछ जाता, ‘अंकल जी आशा  मिली क्या?’
बच्चों और बड़ों के लिये गुम होने के पहले तक वह मात्र गूंगी-पगली थी पर अब सबकी आशा बन गयी थी।
जसराज के मूड का भी कुछ पता नहीं चल रहा था। कभी बजरंगी को साथ उसकी पत्नी की खोज में देता तो कभी उसके विरूद्ध हो जाता। साथ देने का कारण शायद  पड़ोसी-धर्म हो । इस समय तो वह यही कह रहा था, ‘बजरंगी साले को ठंड की चिन्ता है। नहीं मिली तो सर्दी कैसे कटेगी। छोड़े उसे, बच्चो की फिक्र करे। उसके साथ भी तो धोखेबाजी हुई है।’
‘बजरंगी के साथ...’ मैंने उत्सुक होकर जानना चाहा।
‘और क्या। इसके साथ ही कोई प्रौढ़ औरत काम करती है। उसी ने तो यह रिश्ता करवाया  था। दिखायी छोटी बहन थी और व्याह  दी इस अधपगली से। ढोता आ रहा है इस बोझ को। उस पर तीन बच्चे भी जन दिए।
‘उसके साथ विश्वासघात हुआ तो उसने रिश्ता  कराने वाली से जवाब-तलब नहीं किया?’
‘वह तो कहती है कि जिसे दिखाया था, उसी से विवाह हुआ है। यह बजरंगी भी कौन-सा साबुत दिमाग का है। देखने में भी सुभान-अल्लाह। जैसा यह है वैसी ही तो लड़की दिलानी थी किसी ने। इसके लिये हूर-परी का रिश्ता लाती क्या वो?’
सच क्या था, पता नहीं पर बजरंगी ने आशा को पत्नी का दर्जा देकर घर में ठौर-ठिकाना दिया, हालंकि ससुराल पक्ष से उसका नाता टूटता चला गया। मंदबुद्धि आशा ने बजरंगी का घर कैसे संभाला, यह भी विस्मय की बात है। बजरंगी को तो घरवाली मिल गयी बस। अकसर घर, बीवी-बच्चों के प्रति लापरवाह रहता। साफ-सफाई से उसे भी बैर है। दारू चढ़ा लेता तो देर रात लड़खड़ाता घर लौटता। साथ में एक-दो साथी भी होते।
एक सप्ताह से भी अधिक गुजर गये। गूंगी आशा की खबर कहीं से नहीं मिली। बस इसी बीच हमारे घर उसकी बहन के दो फोन और आये यह जानने के लिये कि उसकी बहन मिली या नहीं? इससे अधिक कुछ नही।
सप्ताह भी नहीं बीता होगा कि एक दिन सुबह-सुबह कंबल ओढ़े जसराज हमारे घर पहुंचा और पूछने लगा, ‘कहीं आपके किसी अखबार में यह खबर छपी है कि बोरे में बंद एक औरत और बच्ची की लाश अमृतसर के पास मिली हॅ।’
सुनते ही मैं सकते में आ गया। अपने और पड़ोसियों के अखबार का कोना-कोना छान मारा पर कहीं भी ऐसी कोई खबर हमारी निगाह में नहीं आयी।
‘खबर तो कहीं नहीं ।’ मैंने कहा।
‘बजरंगी को भी किसी ने सुबह-सुबह खबर दी है। वह तो अमृतसर जाने की तैयारी कर रहा है।’ जसराज ने कहा, ‘मैंने सोचा, अखबार में शायद पूरी सूचना हो।’
जसराज उसी समय लौट गया। बाद में ज्ञात हुआ कि ऐसी कोई खबर पंजाब से छपने वाले किसी समाचारपत्र में थी पर महिला के साथ लड़की सोलह-सत्रह साल की बतायी गयी थी, इसलिए बजरंगी ने वहां जाने का इरादा टाल दिया था।
अब तो महीनों गुजर गए हैं। पुलिस ने तो अपना काम एफ आई आर दर्ज कर पूरा कर दिया था। इससे अधिक वह कर भी क्या सकती थी। किसी पहुंच वाले की कोई सगी तो थी नहीं वह। बजरंगी ने एक सब्जी बेचने वाले को अपने सरकारी मकान का एक कमरा किराये पर दे दिया है। सब्जी वाले के साथ उसकी बीवी और दो छोटे बच्चे भी हैं।  बजरंगी के दो बच्चे भी उनके साथ पल रहे हैं।
अभी पिछले दिनों की बात है। बजरंगी मुझे अपने मोहल्ले में ही मिल गया। न दुआ, न सलाम। मुझे देखते ही बस फट पड़ा, ‘उसका पता चल गया है। मैं एक साधु बाबा से मिला था। उसने बताया कि आशा  उत्तर प्रदेश  के एक मंदिर में है। बाबा आंखें बंद कर सब कुछ सच-सच बता देते हैं। बच्ची और वह दोनों ठीक-ठाक से हैं।  कुछ पैसे जुट जाये तो उन्हें जाके ले आऊंगा।

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