लघुकथा: समय के पाबंद

रेखांकन: रतन चंद 'रत्नेश'
वह डाकघर पहुंचा। जेब से दस रुपए का नोट निकालकर काउंटर पर बैठी महिला की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘मैडम, पांच-पांच रुपए के दो स्टैम्प दे दीजिए।’
महिला ने तपाक से कहा, ‘ढ़ाई बज गए हैं और अब यह लंच-आवर है।’
‘पर मैडम अभी तो दो बजने में पांच मिनट रहते हैं।’ उसने अपनी कलाई घड़ी पर एक निगाह डालते हुए कहा।
‘सामने दीवार-घड़ी की ओर देखो, दो बज चुके हैं। हमने सरकारी घड़ी के अनुसार चलना है न कि आपके।’
उसने दीवार घड़ी पर निगाह डाली। ठीक दो बज रहे थे।
इसी बीच महिला ने काउंटर छोड़ दिया। वह भी डाकघर से निकलकर घर की ओर चल पड़ा। सोचा, लंच के बाद वापस दफ्तर लौटते समय डाकटिकट ले लेगा।
दो बजकर पैंतीस मिनट पर जब वह फिर से  डाकघर पहुंचा तो काउंटर पर महिला मौजूद नहीं थी। उसने डाकघर की दीवार-घड़ी देखी। दो बजकर चालीस मिनट हो रहे थे। उसे मजबूरन इंतजार करना पड़ा। अंततः कुछ देर बाद महिला काउंटर पर नमूदार हुई।
उसने दस रुपए का नोट आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘मैडम, लंच-आवर ढाई बजे तक था और अब दो चालीस से ऊपर हो गए हैं।’

महिला ने अपने हाव-भाव कुछ यों बनाए जैसे उसने कुछ सुना ही न हो।

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