लघुकथा- मेरे अपने

दूसरे शहर में रहने के कारण छः माह बाद मैं उनके घर जा पाया। घर क्या, यह सारा का सारा कस्बा पहले पिछड़ी गिनती में आता था। अब तो आधुनिकता का मुलम्मा चढ़ चुका है इस पर।
रिटायर का जीवन बसर कर रहे मेरे करीबी रिश्तेदार और उनकी धर्मपत्नी ने बेहद संक्षिप्त-सा कुशलक्षेम पूछा और बिना मेरी उत्तर की प्रतीक्षा किए दूरदर्शन का हर रोज आने वाले धारावाहिक देखते रहे।
मुझे नागवार लगा। तभी लगा कि उस धारावाहिक के एक पात्र ने मेरी ओर उंगली उठायी और व्यंग्यात्मक लहजे में जैसे मुझे ही कहने लगा हो--
‘‘तुम से अज़ीज अब मैं हूं इनके लिए। मैं यहां हर रोज आता हूं। तुम तो एक अर्से बाद यहां आए हो। बोलो... तुम ही बोलो, इनके करीब मैं अधिक हूं या तुम?... बोलो, चुप क्यों हो?’’
मैं मन-ही-मन बुदबुदाया, ‘‘फिर भी तुम कभी इनके दुःख-दर्द में काम नहीं आ सकते। एक जीता जागता आदमी ही आदमी का भला कर सकता है।’’
‘‘भला... (वह ठहाके लगाता है), अरे भाई,बुरा कहो, बुरा। आजकल कौन किसी के भले की सोचता है। फुर्सत है ही किसके पास? तुम अपने आप को ही लो। लगभग छः माह बाद आए हो यहां। इनका दुःख-दर्द किसने बांटा, मैंने या तुमने? आदमी जब जी चाहे मुझसे खेल सकता है। अपना मन बहला सकता है। दुःख में रोता है मेरे साथ, सुख में हंसता है मेरे साथ।’’
दोनों पति-पत्नी की आंखे टीवी के पर्दे पर पल-पल बदलते दृष्य पर गड़ी हुई हैं। चेहरे पर कई रंग आ रहे हैं, कई जा रहे हैं।
मैं अपने आप को उपेक्षित महसूस करता टीवी के पात्रों से बहुत बौना समझने लगा और घोर विवशता में धारावाहिक के समाप्त होने की व्याकुलता से प्रतीक्षा करता रहा।
इसी बीच ‘आफटर द ब्रेक’ की कड़क चाय की गर्म भाप स्क्रीन पर उठने लगी। महिला ने मुझसे पूछा, ‘‘चाय अभी पीओगे या ठहरकर?’’
मैंने अनुमान लगाया कि वह अभी चाय बनाने की जहमत नहीं उठाना चाहती थी। धारावाहिक के सारे पात्र उसके अपने हो चुके थे। वह किसी के प्रति अन्याय कैसे कर सकती थी भला?
अचानक नायिका का बूढ़ा बाप पागलों जैसी हरकतें करता स्क्रीन पर उभरता है।
मैं बैठा-बैठा अधीर हो उठता हूं। इतने दिनों बाद दूसरे शहर से इनके पास आया पर ये धारावाहिक के पात्रों का मन टटोलने में व्यस्त हैं। जी में आ रहा था उठकर चल दूं यहां से।
थोड़ी देर में वही नायक पुनः पर्दे पर अवतरित होता है जिसने अपने सामने मेरी औकात बता दी थी।
‘‘क्यों मियां, क्या कहते हो? मैं इनके करीब हूं या तुम?’’
मैं आंखें चुराकर उस कमरे से निकल बाहर खुली हवा में आ जाता हूं और एक हुदहुद को चीड़ के वृक्ष की टोह लेते हुए देखने लगता हूं। (रत्नेश)

5 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन है उतार चढ़ाव तो चलते ही है! सुन्दर लघुकथा!

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  2. शब्द चित्र के साथ-साथ रेखा चित्र भी सचमुच अच्छा बन पड़ा है।

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. बहुत जानदार तकरीर सिकुड़ते इन्सानी रिश्तों पर !

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  5. ‘‘चाय अभी पीओगे या ठहरकर?’’
    मैंने अनुमान लगाया कि वह अभी चाय बनाने की जहमत नहीं उठाना चाहती थी। धारावाहिक के सारे पात्र उसके अपने हो चुके थे। वह किसी के प्रति अन्याय कैसे कर सकती थी भला?,................. बिल्कुल सही रत्नेश जी, आज के इस समाज में हम जहां अधुनिक्ता की और जा रहें............. वहीं हम अतिथि सत्कार को पीछे छोड़ते जा रहे हैं ..... अपने घरों मैं भी आज कल यही हाल है, डिनर का सेड्यूल भी सीरियल के हिसाब से बनने लगा है, भले जमाने मैं पोता दादा के पेट पे लेट कर कहानी सुना करते थे , इससे उनकके आपस मैं प्यार भी डोर भी मजबूत बनी रहती थी .......मगर आज के इस बदलते जमाने के भवर मैं ये रिश्तों की ये डोरीआं टूटती सी नजर आ रही हैं| बच्चों को टीवी विडियो गेम्स से फुर्सत नही , माँ-बाप को सीरियल से .....बजुर्गों से कोई बात करने वाला नहीं ,और ये बेचारे मानसिक परेशानी का शिकार तक हो जाते हैं |

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