कविगुरु का एक हायकू

टैगोर का 150वां जयंती-वर्ष: कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी जापान-यात्रा (1916) के दौरान एक हाइकू लिखा था जो सन्ï 1989 तक अज्ञात रहा। 1989 में नागोआ शहर के वासी हायाकोजी हायाशी ने टोकियो स्थित भारतीय दूतावास के माध्यम से भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय को यह हाइकू और वहां उतारे गए छायाचित्र व एक चांदी-मोती की माला सौंपी थी। वे सभी अब कोलकाता के राष्ट्रीय संग्रहालय में संजोकर रखे हुए हैं। कवि के 126वें जन्मदिवस के अवसर पर पहली बार इन स्मृति-चिन्हों को प्रदर्शित किया गया था। अंग्रेजी में लिखी पांच पंक्तियों की इस हस्तलिखित लघु-कविता के नीचे उन्होंने अपना नाम भी लिखा है। अनुमान है कि यह 31 जुलाई, 1916 को लिखा गया क्योंकि प्राप्त हाइकू में यह तिथि पूर्णत: स्पष्टï नज़र नहीं आती। सुनहरे कागज पर ये पंक्तियां अंग्रेजी में इस तरह लिखी हुई हैं—
'Give me thy whole water
 in joy
sings the waterfall
though little of it is
sufficient for the thirsty'

--Rabindranath Tagore

नागोआ निवासी हायाकोजी हायाशी ने तसवीरों और इस हायकू के साथ एक चांदी व मोती की माला भी सौंपी थी जो कवि ने किसी को उपहारस्वरूप दी थी। साथ ही हायाशी ने एक पत्र भी दिया था जिसमें जापानी में इस हायकू का भावार्थ निहित था। जापानी भाषा की मर्मज्ञ डा. पूर्वी गंगोपाध्याय ने उसका अनुवाद यूं किया है—’जिस तरह बिना रुके लगातार झरने की जलधारा बहती रहती है, उसी तरह बिना रुके सभी कार्य करते जाना मानव-जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।

विश्वभारती और राष्ट्रीय संग्रहालय के सौजन्य से बांग्ला पत्रिका ‘देश' के शारदीय विशेषांक 2006 में श्याालकांति चक्रवर्ती लिखते हैं—’गुरुदेव टैगोर की प्रथम जापान-यात्रा 3 मई, 1916 को आरंभ हुई थी। इस यात्रा के दौरान अमेरिका जाकर वे पुन: जापान लौटे थे और 13 मार्च, 1917 को उनकी स्वदेश वापसी हुई थी। कवि ने इस यात्रा का वर्णन अपने कई लेखों, पत्रों और संस्मरणों में किया है। इस यात्रा में मुकुल दे, सीएफ एन्ड्रूज और विलियम पियर्सन उनके  सहयोगी थे। इन लोगों ने भी अपने जापान-प्रवास पर संस्मरण लिखे हैं। प्राप्त तसवीर और हाइकू का सृजन जापान के प्रसिद्ध बंदरगाह शहर योकोहामा और वहां के कलाप्रेमी तोमितारो हारा (1869-1939) के बंगले पर हुआ था। 22 मई को टैगोर अपने साथियों के साथ जापान के कोवे बंदरगाह पहुंचे थे। वहां से नारा, कियो तो, टोकियो अंत में वे 28 जुलाई को योकोहामा में रेशम के एक प्रसिद्ध व्यापारी तोमितारो हारा के विशाल फार्महाउस में पहुंचे। हालांकि इसी बीच पियर्सन और मुकुल चंद्र दे के साथ टैगोर 2 सितंबर को अंतत: योकोहामा से रवाना हुए थे। अत: जुलाई के अंत से लेकर सितंबर के शुरू तक प्राय: दो महीने उन्होंने हारा का आतिथ्य स्वीकार किया। भारतीय दूतावास को कविगुरु से जुड़े इन स्मृति-चिह्नïों को सौंपते हुए हायाकोजी हायाशी यह बताना नहीं भूले कि ये तसवीरें, हायकू आदि उन्हें हारा के योकोहामा स्थित घर से उपलब्ध हुए हैं।

योकोहामा-प्रवास के दिनों के बारे में गुरुदेव और मुकुल दे ने जो कुछ लिखा है उससे यह जाहिर होता है कि हारा कला के रसिया थे। आमार कथा (मेरी कहानी) में मुकुल दे लिखते हैं—’योकोहामा में हम वहां के एक धनाढ्य व्यापारी तोमितारा हारा के घर पर ठहरे थे। ये जापानी साहब इतने बड़े कलाप्रेमी होंगे, विश्वास न था। कला पर वे गहन विचार-विमर्श किया करते। उन्होंने मुझे एक पेंटिंग बनाकर दी थी, मैंने भी उनका एक स्केच बनाया।’

संस्मरणों से ज्ञात होता है कि हारा के लिए अतिथि देवो भव होते थे। यही कारण है कि विश्वभ्रमण के दौरान गुरुदेव टैगोर इनके यहां सबसे अधिक दिनों तक ठहरे। हारा टैगोर से आठ वर्ष छोटे थे। उनका जन्म जापान के गिफु प्रिफेक्चर में हुआ था। प्राचीन चीनी साहित्य और इतिहास में उनकी रुचि थी। विवाह के बाद उन्होंने अपने ससुर के रेशम व्यवसाय को अपनाया। टैगोर के जापान सफर के दो वर्ष पूर्व वहां के शिल्प-व्यवसाय में जो भीषण मंदी आयी थी, हारा अपनी कार्यकुशलता और बौद्धिकता से शीघ्र ही उससे उबर गए थे। जापान के कई कलाकारों को वे ताउम्र आर्थिक सहायता पहुंचाते रहे।

सौंपे गए अप्रकाशित तीन छायाचित्र हारा के अतिथि-गृह में ही लिए गए थे। गुरुदेव का श्वेत-श्याम चित्र 13.2&9.3 सें.मी. का है। चित्र के नीचे टैगोर ने अपना नाम तथा अगस्त 31, 1916 लिखा है। यह तसवीर सुनहरे जापानी कागज पर चिपकी हुई थी। कवि ने जहां अपना नाम लिखा था, उसके नीचे फोटोग्राफर केआर माची और योकोहामा अंग्रेजी के बड़े अक्षरों में उद्धृत है। तोमितारो के घर पर गुरुदेव की देखभाल के लिए एक सोलह वर्षीया तरुणी ओकिओसान नियुक्त थी जिसे कवि अपनी बेटी की तरह मानते थे। वह टैगोर की श्रद्धालु थी और पूरे मनोयोग से उनकी सेवा करती थी। वह मुकुल दे को नियमित रूप से जापानी भाषा सिखलाती थी और स्वयं उनसे बांग्ला सीखती थी।

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