भारत की हिंदी लघुकथाएं


पेशे से चिकित्सक डॉ. रामकुमार घोटड़ ने साहित्य के क्षेत्र में लघुकथा पर वृहद और कई महत्वपूर्ण कार्य किया है और अब तक उन्हें 22 पुस्तकों में समेटा है। इसी श्रृंखला में सद्य-प्रकाशित पुस्तक ‘भारतीय  हिन्दी लघुकथाएं’ इस मायने में ध्यान खींचती है कि इसमें देश  के लगभग हर प्रान्त के हिन्दी लघुकथाकारों की लघुकथाएं समाहित हैं और लघुकथा के सभी दिग्गज इसमें शामिल हैं। यह संकलन दो खंडों में है। ‘विरासत के धनी’ नामक पहले खंड में भारतेंदु हरिश्चंद्र , माधव राव सप्रे, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद , पदुमलाल पन्नालाल बक्षी, उपेन्द्रनाथ अश्करावी और विष्णु  प्रभाकर जैसे मूर्धन्य व अग्रज लेखकों की एक-एक लघुकथाएं संकलित हैं जबकि दूसरे खंड का नाम ‘विरासत के कर्णधार’ रखा गया है। इसमें लगभग वे सभी आधुनिक लेखक हैं जिन्होंने राष्ट्रीय  स्तर पर लघुकथा क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनायी है। इन लघुकथाकारों की तीन-तीन लघुकथाएं इसमें शामिल की गई हैं। डा. घोटड़ के अनुसार प्रथम व द्वितीय खंड में पुस्तक को विभक्त करने का उद्देष्य यह है कि पाठक पूर्ववर्ती ओर वर्तमान में लिखी जा रही लघुकथाओं से गुजरकर उनका पठनीय रसास्वादन और तात्विक मूल्यांकन कर सके।
यह कहना गलत नहीं होगा कि 1942 में बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ द्वारा नामांकित लघुकथा आज साहित्य की एक सशक्त और स्वीकृत विधा है तथा अन्य विधाओं की तरह देश -विदेश  में इस पर प्रयोग होते आ रहे हैं। फिर भी लघुकथा का मार्मिक प्रभाव इसके कम और उद्वेलित करने वाले शब्दों के कारण अधिक है। इसी से सार्थक लघुकथाएं हमेश  मानस-पटल पर लम्बे समय के लिए अंकित हो जाती हैं। उदाहरण के तौर पर इसी पुस्तक के प्रथम खंड में संकलित भारतेन्दु हरिश्चंद्र  (1850-1885) की लघुकथा ‘अंगहीन धनी’ को लिया जा सकता है।
‘‘एक  धनिष्ट के घर उसके बहुत से प्रतिष्ठित  व्यक्ति बैठे थे। नौकर बुलाने की घंटी बजी। मोहना भीतर दौड़ा,  पर हंसता हुआ लौटा। दूसरे नौकरों ने पूछा, ‘क्यों हंस रहे हो?’ तो उसने जवाब दिया, ‘भाई सोलह हट्टे-कट्टे जवान थे। उनसे एक बत्ती न बुझे, जब हम गए तो बुझे।’
मानव-मन के विभिन्न धरातलों पर रचे गए इस संकलन की लघुकथाओं को पढ़ते हुए ऐसे ही कई अनुभव, संप्रेषण और भाव जगते हैं। इनमें कहीं दुःख की नदी बहती है तो कहीं सुख का झरना। कहीं विसंगतियां हैं तो कहीं मुखौटा ओढ़े आदमी का चेहरा-दर-चेहरा। भूख की त्रासदी, गरीब-मजदूरों, किसानों की व्यथा, नेताओं का दोगलापन, राजनीति का भ्रष्ट आचरण, पुलिस के चेहरे, औरतों व बच्चों का शोषण -उत्पीड़न, व्यवस्था के डगमगाते रूप आदि जीवन के सभी पहलू यहां देखने को मिलते हैं तो साथ ही इनसे उभरती उम्मीद की किरणें। कथा-कहानियों  और यहां तक कि मीडिया में भी पुलिस का भ्रष्ट चेहरा ही दिखाया जाता है और उन पर लघुकथाएं भी खूब लिखी गई हैं, पर इस संकलन में पुलिस का सकारात्म पक्ष उनके अंदर के इंसानियत को दर्शाता है। अशोक भाटिया की लघुकथा ‘प्रतिक्रिया’, विजय रानी बंसल की ‘पुलिस’ और प्रताप सिंह सोढी की 'दुविधा' ऐसी  ही लघुकथाएं हैं। महेन्द्र सिंह महलान ने ‘झंडा’ में व्यवस्था का क्रूर उदाहरण प्रस्तुत किया है तो जयप्रकाश मानस  ने ‘वोट’ के अंतर्गत यह दर्शाया  है कि भूखे-मजदूरों को आर्थिक सहायता देने की बात हो तो वे भी यही समझते हैं कि चुनाव आने वाला है। लघुकथा क्षेत्र में नेताओं की छवि आजतक सुधर नहीं पायी जिसका मुख्य कारण हमारा भ्रष्टतंत्र ही है। ‘विजय-जुलूस‘(रामेश्वर कम्बोज 'हिमांशु'), ‘राजनीति’(सुरेन्द्र मंथन), ‘सियासत’(जसबीर चावला), ‘चुनाव’ ’(शंकर पुणतांबेकर), ‘चुनाव से पहले’ ’(महेश राजा), ‘लोकतंत्र‘ ’(अमरनाथ चौधरी अब्ज) आदि लघुकथाएं इसी ओर इशारा करती हैं। सुकेश साहनी, महेन्द्र सिंह महलान और धर्मपाल साहिल की लघुकथाएं बच्चों का मनोविज्ञान प्रस्तुत करने में सफल रही हैं तो सुदर्शन वशिष्ठ, डा. किशोर काबरा और युगल ने बुजुर्गों की व्यथा को उकेरा है। सफर में घटने वाली घटनाओं को माध्यम बनाकर कई उम्दा लघुकथाएं लिखी गई हैं जो इस संग्रह की पठनीयता को बरकरार रखती हैं। हीर के सुरीले बोल सुनते हुए एक पाकिस्तानी किसान कब देश  की सीमा पार कर गया, उसे पता ही नहीं चला। इसे श्याम सुन्दर दीप्ति ने बहुत ही खूबसूरत ढंग से अपनी लघुकथा ‘हद’ में कलमवद्ध किया है। इसी तरह रोशन विक्षिप्त की चार वाक्यों की लघुकथा ‘निर्णय’ एक विसंगति की ओर इशारा करती है--- वह शक के आधार पर पकड़ा गया था। अपने पक्ष में गवाह प्रस्तुत न कर पाने के कारण उसे सात साल कैद का निर्णय दिया गया। जेल में अच्छे आचरण के कारण उसे अवधि से पहले रिहा करने का निर्णय लिया गया।
संकलन में इस तरह की कम शब्दों की लघुकथाएं बहुत मारक हैं। डा. राजेन्द्र सोनी की लघुकथा ‘गांधी के प्रतीक बंदर’ यों उभरा है ---इक्कीसवीं सदी प्रारम्भ हुई और गांधी जी के तीनों बंदरों ने अपने-अपने हाथ हटा लिए। आखिर ऐसा क्यों....?  पूछने पर समवेत स्वर सुनाई दिया, अब जीवन में ऐसी गलती नहीं करेंगे।
दफ्तरी व्यवस्था पर बलराम अग्रवाल (बिना नाल का घोड़ा), और डा0 सतीशराज पुश्करणा (बीती विभावरी) की लघुकथाएं अच्छी बन पड़ी हैं तो श्याम सुन्दर अग्रवाल (स्कूल), डा. रूप देवगुण (लक्ष्मी), डा. योगेन्द्रनाथ शुक्ल  (शिकार), मधुकांत (मेरा अध्यापक), शिक्षा-व्यवस्था की पड़ताल करते नजर आते हैं।
यह कहना गलत नहीं होगा कि संकलन में कई अच्छे लघुकथाकार छूट गए हैं और महिला लघुकथाकार भी गिनती के हैं। महिला लघुकथाकारों में डा. आभा झा, डा. आशा पुष्प, मालती वसंत, सुरभि रैना बाली, विजय रानी बंसल और पुष्पलता कश्यप ही हैं। चर्चित लघुकथाकारों में कमल चोपड़ा, कमलेश भारतीय, डा0 रामनिवास मानव, घनश्याम अग्रवाल, भगवान वैद्य प्रखर, भगीरथ, राजेन्द्र सोनी, विक्रम सोनी
रामयतन यादव, तारिक असलम ‘तस्नीम’ आदि भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। हालांकि पुस्तक संग्रहणीय है पर लघुकथाओं के चुनाव में भी डा. घोटड़ कहीं-कहीं चूकते नजर आते हैं।
पु स्तकः भारत की हिन्दी लघुकथाएंः डा.राम कुमार घोटड़
प्रकाशकः मंजुली प्रकाशन, पी-4, पिलंजी सरोजिनी नगर,
नई दिल्ली-110023
मूल्यः 400 रुपए


1 टिप्पणी:

  1. पूरी तरह निष्पक्ष और लाग-लपेट से अछूती समीक्षा आपने प्रस्तुत की है। मेरी ओर से साधुवाद।

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