कुमार अम्बुज : मेरी डायरी से

सन् १९९७ की फ़रवरी माह में मैं कुमार अम्बुज की कुछ पसंदीदा कविताएँ अपनी डायरी में लिखी थीं. कल वह डायरी हाथ लगी. कविताएँ थीं--क्रूरता, एक मिनट में, कोई नहीं मारना चाहताऔर यहाँ उद्धृत कविता. वह युग ब्लॉग का था नहीं और न हमारी कम्प्युटर से जान-पहचान थी .
कुमार अम्बुज की एक कविता:
अकस्मात् एक दिन
हम सिर्फ सोचते रहेंगे
लेकिन अकस्मात् एक दिन माँ आ जाएगी
विस्मय और पुलक से भर देगी एक सुबह
प्रकट होगी नए अचार और पापड़ में
खाना परोसेगी और वैसी ही ज़िद करेगी जो माँ  कर सकती है
फिर मेरी तरफ देखेगी और चिंतित हो जाएगी
वह देखेगी उस काया का क्षय
जिसे निर्मित किया था उसी ने
मुझसे कुछ कहना चाहेगी लेकिन उसके पास बहुत कम शब्द होगे
और वे भी दोहराए जा चुके होंगे कई बार
लेकिन वह उन्हीं से काम चलाना चाहेगी

मैं बचना चाहूँगा, बदल दूँगा बात
मैं बदल चुका होऊँगा इतना कि लज्जित हो सकूँ
फिर भी  ढूँढ लेगी वह मुझमें पुराने पहचान के चिह्न
नष्ट होते हुए शरीर में खोज  लेगी बचपन और किशोरावस्था
उसी में दुर्दिन और जीवटता
उसी में खोज लेगी वह मेरे बच्चों को जैसे उनमें खोजती है मुझे
मुस्करा देगी मूँछों में सफेद बाल देखकर
सहलाएगी सिर के आधे रह गए बालों केश 
वहाँ दोगुनी धूल और थकान देखकर खामोश  रहेगी
अपने बारे में बताएगी सिर्फ इतना
कि बदवा लिया है नया चश्मा ।

थोड़े से समय में बचा हुआ है ज्यादा जीवन
माँ  जान चुकी है हमारे समय का धीरज
एक खाई में से निकलकर दूसरी खाई में गिरने की हमारी व्यस्तताएं
व्ह विपत्तियों की सुरंग पार करके आई है
और कहती है ऐसा सबने किया इसमें नया कुछ नहीं
हम सिर्फ सोचते रहेंगे
लेकिन अकस्मात् एक दिन माँ  आ जाएगी
स्थगित करती हुई कुछ और समय के लिए
हमारे पश्चाताप।

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