दिल्ली का कवि हिमाचल में
परौंठेवाली गली ढूंढता है
जबकि यहां की हर गली और कूचे में
पकते हैं परौंठे।
आलू के ही नहीं,
मूली, मेथी, गोभी और उन सबके
जिनके बारे में
दिल्ली वाले सोच तक नहीं सकते।
दिल्ली वाले सोच तक नहीं सकते।
दिल्ली का कवि हिमाचल में आकर
अपने आप को पहाड़ से भी
ऊँचा समझने लगता है
ऊँचा समझने लगता है
पहाड़ हंसता है
आज आया है ऊँट उसके नीचे।
दिल्ली का कवि नेता से भी बड़ा होता है
मंच पर उसके सामने मुस्कुराता है
और उनकी अनुपस्थिति में गरियाता है
शाम को बिस्तर के नीचे लुढ़कती बोतल
इस बात पर ठहाके मारकर हंसती है।
एक अनजानी-सी छोटी गलती पर
दिल्ली का कवि हिंस्र हो उठता है
और यह दलील पेश करने लगता है कि
घोड़ा जानबूझकर दुलत्ती मारे या अनजाने में
हाड़-मांस के मानुष को हिंस्र जानवर में तब्दील हो जाना चाहिए
दिल्ली के कवि को शायद यह पता नहीं
पहाड़ की औरत तक हिंस्र से हिंस्र जानवरों को
लहूलुहान कर सकती है
मात्र एक दराटी से।
दिल्ली के कवि का मुखौटा
पहाड़ पर आते ही अपने आप उतर जाता है
यहां का पानी एक मिनरल वाटर से भी शुद्ध है।
कुछ पॉज़िटिव भी तो लिखिए भाई, मसलन:
जवाब देंहटाएंदिल्ली के कवि को हिमाचल में कितने तो 'शेड्स' नज़र आए/दिल्ली के कवि ने हिमाचल की कविता को बताया कि ईश्वर को आदमी ने बनाया/ दिल्ली का कवि हिमाचल मे कविता खोज रहा था/ हिमाचल की कविता को दिल्ली का कवि बहुत पसन्द आया/ इतना कि वह हिमाचल के कवियों को भूल कर दिल्ली के कवि को भाव देने लगी/ मुझे तो दिल्ली का कवि सच्मुच पहाड़ जैसा लग रहा था..इत्यादि..:)
बकरी दूध देने के बाद पात्र में मिंगन कर दे तो दूध बेकार हो जाता है..
जवाब देंहटाएंप्रभु बहुत सुन्दर। पहाड़ तो पहाड़ है आपने मेरी एक पुरानी कविता की याद दिला दी गांव जब भी जाता है महानगर....! शायद आपको याद होगा शेष शुभ
जवाब देंहटाएंकुछ कहती और कई सवाल उठाती कविता। दिल्ली के कवि ही नहीं कविता विषयक सवाल भी उठा रही है।
जवाब देंहटाएं